हिंगणघाट।
श्रावण अमावास्य को पोला मनाया जाता है। पोला ये बैल का त्यौहार है। अपना भारतदेश कृषिप्रधान देश है। किसान के जीवन में इस त्यौहार का विषेश महत्व है। पोला मतलब बैल के रूप में श्रमदेवता की पूजा करने का दिन है। इस दीन खेती के काम के लिए उपयुक्त नांगर, खोरं, मोट, विला, कोयता आदी साधन के साथ बैल की पूजा की जाती है। भारत देश कृषिप्रधान है। और समग्र किसान का जीवन बैल के भरोसे होने से बैलो का इन किसानों के समाजजीवन व संस्कृती में अनन्य साधारण महत्व है।आज के यंत्रयुग में भी बैल के श्रम को पर्याय नही। ट्रॅक्टर और अन्य महंगी यंत्रसामग्री केवल सधन किसान ही इस्तेमाल कर सकते है। लेकीन सामान्य कष्टकरी किसान को ये संभव नहीं। उनके लिए बैल ही महत्वपूर्ण होते है। इस वजह से किसानों के जीवन में बैल का महत्व अन्यन्य साधारण है। बैल का यह ऋण हम चुका नहीं सकते। लेकीन कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए हा पोला त्यौहार अत्यंत आत्मीयता से मनाया जाता है।
खेती के काम होने पर इस काम से बैल मुक्त होते है।और इस एकदीन किसान अपने अन्नदाता बैल को नहला धुआवाला के पुरणपोली का नैवेद्य दिखाकर, उसे पूजता है। इस दिन बैल कों सजाया जाता है। उसके शिंग को हींगुल को बेगड लगाया जाता है। गले में सूंदर माला और पांवों में घुंगरू बांधे जाते है पिठपर रंगबिरंगी झुली-खोरी डालके विविध प्रकार से इन बैलको रंगाके मनमोहक श्रुंगार किया जाता है। और गाजे बाजे के साथ उनकी शोभायात्रा निकाली जाती है। इस दिन बैल के खंदे को हल्दी घी से पोता जाता है। जिसे खांदा शेखणी कहते है। दूसरे दिन बैल के पीठ पर नक्षीकाम किए झुल, और गेरूके ठिपके, शिग को बेगड, माथे पर बाशिंग, गले में कवड्या व घुंगर की माला, नई वेसण, नया कासरा, गले में पितली तोडे उसी प्रकार सालगडी को नए कपडे दिए जाते है। इस सण के लिए किसानों में उत्साह रहता है। अपनी बैल जोड़ी दूसरे के बैल जोड़ी से बेतरह दिखाने की होड़ होती है। इस हेतु सभी किसान अपने अपने हिसाब खर्च करता है। इन सजे धाजे बैल को पोल में लाया जाता है। गाव की सीमा पर आंब् के पत्ते का तोरण बांधा जाता है। सभी बैल जोड़ियां, सनई, ढोल-ताशे की आवाज में वहा एकत्रित होती है। कोरोना संकट के चलते इस बार शोभायात्रा निकाली नहीं जाएंगी।