जब बात आती है माँ दुर्गा की पूजा की, तो कोलकाता की दुर्गा पूजा केवल एक धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि एक आस्था, कला और संस्कृति का भव्य संगम बन जाती है। यह पर्व न सिर्फ बंगाल, बल्कि पूरे भारत और दुनिया भर के लोगों के लिए भक्ति और सौंदर्य का जीवंत उत्सव है।
दुर्गा पूजा: परंपरा से भक्ति तक
दुर्गा पूजा हर साल शारदीय नवरात्रि के दौरान, महालया से विजयादशमी तक मनाई जाती है।
कोलकाता में यह उत्सव एक भव्य सांस्कृतिक उत्सव में बदल जाता है, जिसमें:
- माँ दुर्गा के भव्य पंडाल
- कलात्मक मूर्तियाँ
- रंग-बिरंगे प्रकाश की सजावट
- और रात भर चलने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम लोगों को बाँधे रखते हैं।
मूर्तियों की अद्भुत कला
कोलकाता की दुर्गा पूजा की सबसे खास बात है — माँ दुर्गा की मूर्तियाँ।
- ये मूर्तियाँ खास तौर पर कुम्हारटोली नामक क्षेत्र में बनाई जाती हैं, जहाँ कुशल कारीगर मिट्टी से देवी को जीवन देते हैं।
- हर मूर्ति की आंखों की पेंटिंग (चौखु दान) एक पवित्र परंपरा मानी जाती है और इसे विशेष मुहूर्त में किया जाता है।
हर साल मूर्तियों के डिज़ाइन में नई-नई कलात्मक थीम देखने को मिलती हैं — पारंपरिक रूप से लेकर आधुनिक सामाजिक संदेशों तक।
पंडालों की थीम और सजावट
कोलकाता में हर दुर्गा पूजा पंडाल एक आर्ट गैलरी जैसा होता है।
- कुछ पंडालों की थीम होती है प्राचीन मंदिरों की,
- कुछ दिखाते हैं समकालीन सामाजिक मुद्दों को,
- और कुछ बन जाते हैं कला, विज्ञान और संस्कृति का अद्भुत मिलन।
साउथ कोलकाता के ‘सुरुचि संघ’, बागबाज़ार, एकदालिया एवरग्रीन, कुमारटोली, और संतोष मित्र स्क्वायर जैसे पंडाल दुनिया भर से पर्यटकों को आकर्षित करते हैं।
संस्कृति और उत्सव की रातें
पूरे शहर में दिन-रात चलता है:
- धाक की गूंज (पारंपरिक ढोल)
- धुनुची नृत्य (अगरबत्ती और लौ के साथ भक्ति नृत्य)
- रात्रि सांस्कृतिक कार्यक्रम: संगीत, नाटक, कवि सम्मेलन और फूड फेस्ट
लोग पारंपरिक परिधानों में सजकर निकलते हैं — महिलाएँ लाल-बॉर्डर की साड़ियों में, पुरुष कुर्ता-पायजामा में।
दुर्गा पूजा और स्वाद का संगम
इस पर्व में खाने की भी उतनी ही महत्ता होती है:
- भोग में खिचड़ी, सब्ज़ी, पायेश (खीर)
- पंडालों के पास की सड़क किनारे दुकानों में मिलता है:
- माछ-भात (मछली-चावल)
- रोल्स, चॉप्स, मुगलाई पराठा
- और रसगुल्ला, संदेश, मिष्टी दोई जैसे बंगाली मिठाईयाँ
विजयादशमी: विदाई का भावुक पल
दशमी के दिन होता है:
- सिंदूर खेला — विवाहित महिलाएँ देवी को विदा करने से पहले एक-दूसरे को सिंदूर लगाती हैं।
- इसके बाद माँ दुर्गा की मूर्तियों को गंगा नदी में विसर्जित किया जाता है।
यह पल भावुक भी होता है, और आशावान भी, क्योंकि सब माँ से अगले साल फिर आने की प्रार्थना करते हैं — “आश्चे बछोर आबार होबे!”
📍 कब और कहाँ?
- समय: सितंबर-अक्टूबर (नवरात्रि के दौरान)
- स्थान: कोलकाता, पश्चिम बंगाल
- कैसे पहुँचें: हवाई मार्ग से नेताजी सुभाष चंद्र बोस अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा, रेलवे और सड़कों से देश के सभी हिस्सों से जुड़ा
निष्कर्ष
कोलकाता की दुर्गा पूजा केवल एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि एक जीवित सांस्कृतिक उत्सव है, जहाँ कला, आस्था और जनभागीदारी मिलकर एक ऐसा दृश्य रचते हैं, जो जीवनभर याद रहता है।