आस्था का प्रतीक नवदुर्गा माता मंदिर चप्राड पहाडी. 50 साल पहले की थी मूर्ती की स्थापना

लाखांदूर चप्राड मार्ग पर स्थीत पहाडी इलाका चप्राड पहाडी के नाम से जाना जाता है. इसी पहाडी के उपर प्रसिद्ध नवदुर्गा माता का मंदिर है जिसकी स्थापना 60 साल पहले हुई है, वो एक आस्था का मंदिर है अभी नवरात्री का उत्सव चालू है इसलिये भारी संख्या मे लोग यहाँ आवागमन कर रहे है.
चप्राड पहाडी के उपर आज से 60 साल पहले जब जबलपूर के कल्याणकर महाराज के उपस्थिती मे सहस्त्र चंडिके का यज्ञ चल रहा था तब उसमे 11 जोडे बैठे थे उसमे स्व खा नामदेवराव दिवठे थे वह साल था 1959 तब से खा दिवठे नियमित रूप से चप्राड पहाडी के गुफा मे बैठते थे, एक दिन गुफा मे एकांतवास मे बैठ कर सोच रहे थे उस समय ईश्वर के प्रती उनकी श्रद्धा बढि, बढते गयी और उसी आसक्ती से वो नियमित रूप से नवरात्री मे गुफा मे ध्यान लगाने लगे. उस समय पहाडी परिसर मे काफी घना जंगल था, लाखांदूर के आस पास भी जंगल था और काफी हिस्त्र पशु जंगल मे थे. उस वक्त शिवाजी स्कूल मे संगमवरी आकर्षक नवदुर्गा की मूर्ती काफी दिन पहले से रक्खी थी, उस की याद करायी गई और उसकी स्थापन चप्राड पहाडी पर लाखांदूर के लोगो के माध्यम से की गई.वह साल था 1973.
इसी सालसे अविरत चप्राड पहाडी पर नवदुर्गा उत्सव मनाया जाणे लगा. स्व खा दिवठे जी ने तीन तप 24 साल जीवन के अमूल्य समय इस इलाके को बडा करणे मे लगाये, और कहते थे “आयुष्य एक यात्रा, आयुष्य एक मेळा, आयुष्य एक वेदनांचा खग्रास ठोकताळा, विरास विक्रमांची आयुष्य एक संधी, आयुष्य शंकराचा तिसरा अजेय डोळा.”इस कारण उन्होने दुर्गा माता की सेवा की और पुरे इलाके को भक्तिमय करके, इस पावन भूमी को एक जागृती देवस्थान के रूप मे आस्था का भक्तिमय रस दिया. आज इस परिसर मे दूर दूर से लोग आते है और अपनी मनोवांच्छित इच्छा पुरी करते है. इसलिये आस्था का प्रतिक चप्राड पहाडी की नवदुर्गा माता मंदिर को कहा जाता है हर साल इस मंदिर मे लोग ज्योती कलश की स्थापना करते है, और दिन ब दिन उसकी संख्या बढती जा रही है, इस साल 601 कलश की स्थापना की गई, उसके लिये विशेष व्यवस्था की जाती है तथा नऊ दिन नऊ रात उसकी भक्ती भाव से पूजा की जाती है.पिछले कई सालसे लेकर स्व खा नामदेवराव दिवठे उमर के 37 साल तक चप्राड पहाडी के कपि मे नवरात्री मे ध्यान लगाते थे धूप बारिश हवा का तथा जंगली स्वापदो का किसी भी प्रकार का डर न रखते हुये तपशचर्या करते थे इसलिये लोग उन्हें श्रद्धा से बोवा कहते थे.

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